म्रत्यु दण्ड (death penalty) या मानवीय गरिमा का हनन (capital punishment) न्यायालय ने फांसी की सजा के माध्यम से कुछ जघन्य मामलो में न्याय का श्रेष्ठ सन्देश आम जनता को दिया है इनमे प्रमुख है – देश की आत्मा अर्थात संसद पर हमला करने वाले शौकत और अशफाक, नैना-साहनी हत्याकाण्ड का मुख्य अभियुक्त सुशील शर्मा (अक्टूबर-नवम्बर, 2003) और दारासिंह का मामला जो ग्रैहम stanes के हत्याकांड का मुख्य अभियुक्त था.
इन सब के साथ ही समाज के कुछ क्रूर और निर्दयी मामलो के क्षेत्र में भी लम्बे समय से लोगो द्वारा म्रत्युदण्ड देने की मांग उठाई जा रही थी ! इसमें सामाजिकता का उपहास करने वाले बलात्कारी से लेकर माशेल समिति की अनुशंसा पर नकली दवा बनाने वाले डॉक्टर आदि को भी शामिल करने की बाते बार-बार उठ रही थी ! और एक तरह से देखा जाये तो इनके अपराध की गंभीरता के अनुपात को देखते हुए म्रत्युदण्ड इनके लिए सही ही प्रतीत होता दिखता है किन्तु दूसरी तरफ इसका दूसरा पहलु भी है और इसके विपक्ष में कुछ लोग मर्त्यु दण्ड का विरोध भी करते है.
एक बार फिर से इस प्रावधान को हटाने की बहस लगातार जोर पकडती जा रही है ! इसकी दो बातें विशेष है – एक तो म्रत्युदण्ड से लोग ऐसा अपराध करने से डरेगे और इससे दुरी बनायेंगे तथा दूसरा समाज में ऐसा न करने का सन्देश लोगो में जायेगा ! लेकिन इसके विपक्षी लोगो का तर्क है की कानून में सजा का प्रवधान ही इसलिए होता है की अपराधी को सुधरने और स्थिती को समझने का मौका मिले ऐसे में तो म्रत्यु दण्ड को नाय्यिक तरीके से की गयी हत्या ही माना जायेगा ! सरकार ने भी इसे हटाने की घोषणा की है ! मानवाधिकार का भी यही कहना है की-म्रत्यु दण्ड तो मानवीय गरिमा का एक तरीके से हनन किया जाना ही कहा जायेगा.
यह प्रावधान 1861 में भारतीय दण्ड संहिता में सम्मिलित किया गया है ! 1931 तक यह प्रावधान यथा स्थिती रहा और इसका कोई विरोध भी नहीं हुआ किन्तु इसी वर्ष बिहार की एक क्षेत्रीय सभा के सदस्य ने इसके विरुद्ध विधेयक लाने का असफल प्रयास किया ! 1946 में तत्कालीन अंतरिम सरकार के गृहमंत्री ने भी यह बात स्वीकार करते हुए कहा की ‘यह अपराधो पर नियामक का काम करता है और इन आंकड़ो के प्रावधानों का प्रमाणीकरण और खंडन भी किया’ ! 1955 में एक कानून के बल पर कोर्ट को म्रत्युदण्ड नहीं दिए जाने का कारण बताने की बाध्यता को ही समाप्त कर दिया ! इसके बाद 1973 में यह व्यवस्था की गयी की म्रत्युदंड दिया भी जाये तो इसके कारणों को मुख्य रूप से रेखांकित किया जाना आवश्यक होना चाहिए.
सर्वोच्च न्यायालय की भी कभी भी ऐसी छान-बीन करने की परंपरा नहीं रही है ! बल्कि उसने तो जगमोहन वाद में अपनी सहमती भी प्रकट की ! 1980 में बच्चन सिंह मामले की एक पीठ ने चार के बदले एक के अनुपात से फैसला सुनते हुए साफ़ किया की यह सविधान के अनुच्छेद 14 या 21 का किसी भी रूप में उल्लंघन नहीं करता है ! एक प्रवृति न्याय प्रक्रिया की विलंबता भी दर्शाती है ! 2 साल तक विलम्ब या अमल नहीं होने पर मर्त्युदण्ड का आरोपी अनुच्छेद 21 के तहत याचना कर सकता है ! धनंजय मामला (1994) में एक विशेष न्याय की प्रवृति दिखाई दी इसमें एक सुरक्षाकर्मी द्वारा एक 18 साल की लड़की की बलात्कार के बाद की गयी हत्या से सम्बन्धित था ! कोर्ट ने साफ़ किया कि अपराध के घ्रणित पक्ष पर प्रकाश डाला जाना भी आवश्यक है.
बलात्कार की घटना में म्रत्युदंड:-
बलात्कार की लगातार बढती घटनाओ और उसके अनुपात में मिल रही सजाओ की संख्या से यह साफ़ था की इसकी सजा के प्रावधान में कमी है जिसे दूर किया जाना चाहिए ! यह विधेयक था-‘लडकियों और महिलाओ के साथ बलात्कार निवारण विधेयक -2003’ इसके अनुसार अभियुक्त को या तो मर्त्युदंड या उसके बधियाकरण की सजा होगी ! नैना-साहनी के बहुचर्चित मामले में भी कोर्ट ने स्पष्ट किया की पूरा मामला देखकर अभियुक्त को सिर्फ आजीवन कारावास की सजा पर्याप्त नहीं होगी और यह मामला तो रेयरेस्ट ऑफ़ रेयर है क्योंकि अपराधी ने शव के टुकडो को काटकर तंदूर में जलाया है जो स्त्रीत्व के भी विरुद्ध है ! तब से इन सब मामलो को संगीन जुर्म की श्रेणी में रखा गया जैसे-लाभ के लिए हत्या करना, हत्या से पहले क्रूरता करना, महिला लाचार हो, आरोपी पैसे वाला और समर्थ हो, सबूत मिटाने या शव को जलने का प्रयास किया गया हो.
म्रत्यु दण्ड वैश्विक परिप्रेक्ष्य में:-
1976 में कनाडा ने इसे प्रतिबंधित किया और इसका स्तर भी गिरा.
1995 में अफ्रीका के कोर्ट ने इसे असवैधानिक घोषित किया.
2000 में भी म्रत्यु दण्ड के विरोधियो ने संयुक्त राष्ट्र को 146 देशो के 32 लाख लोगो द्वारा हस्ताक्षर किया गया ज्ञापन सौपा गया था.